लेखक की कलम से व्…. बिहार की मिट्टी कला और साहित्य की दृष्टि से काफी उर्वर रही है। अनेक लोक कलाओं का जन्मदाता है बिहार। ऐसी ही एक कला है’मंजूषा चित्रकला’,जो अंग जनपद की प्रख्यात लोकगाथा बिहुला-विषहरी पर आधारित है,जिसे लोग मंजूषा शिल्प भी कहते हैं। यह राज्य की प्राचीन लोक कलाओं में से एक है।
विहुला विषहरी की लोकगाथा में वर्णित चंपानगरी आज भागलपुर नगर निगम के पश्चिमी किनारे पर स्थित चंपानगर है,यह प्राचीन में अंग जनपद का प्रमुख वाणिज्यिक केंद्र था। द्वापरकालीन कर्णगढ़ (कुंतीपुत्र अंगनरेश कर्ण का जिला) जो वर्तमान भागलपुर के नाथनगर में पड़ता है। इसके भग्नावशेष के समीप ही ‘बिहुला विषहरी की गाथा के प्रमुख पात्र चांदो सौदागर के लोहे के बांस के घर का अवशेष बताया जाता है। पश्चिम बंगाल,उड़ीसा असम आदि कई राज्यों के विभिन्न क्षेत्रों में यह लोकगाथा और इससे जुड़ी विषहरी पूजन की परंपरा प्रचलित है। इस क्षेत्र के चर्चित छायाकार मनोज सिन्हा बताते हैं कि बिहुला के बहाने पांच नाग कन्याओं के अनन्य शिवभक्त चांदो सौदागर द्वारा अपनी पूजा प्रतिष्ठा चाही, जो वास्तव में आर्यों और अनार्यों के सांस्कृतिक संघर्ष और आखिरकार समन्वय की कहानी है। मंजूषा कला के मुख्य किरदार शिव,मनसा, बिहुला, वाला, चांदो सौदागर, नेतुला धोबिन इत्यादि हैं। काल क्रम में बिहुला की मंजूषा ने जो रूप ले लिया है वह है कागज, शोला,सनई एवं विभिन्न देशी रंगों से तैयार मंजूषा। इसकी बनावट मंदिरनुमा होती है जिसमें आठ पाए होते हैं और इसका गुबंद कौणिक होता है।पायों के बीच बने वर्गाकार कमरे में एक दरवाजा होता है।मंजूषा के शीर्ष, आधार तथा स्तभों पर फन काढ़े सर्प बने होते हैं और दीवारों तथा गुम्बद पर बिहुला— विषहरी की कथा चित्रित की जाती है।मंजूषा आकर्षक बने, इसके लिए कागज और शोला से बने फूल चिपकाए जाते हैं।
मंजूषा चित्रकला में बिहुला विषहरी से संबधित आस्था और विश्वास की सपाट और प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति की गयी है।चूंकि हजारों वर्षो से इस जनपद में देवघर स्थित बैद्यनाथ धाम में अपार श्रद्धा है। खुद चांदो सौदागर शिवभक्त था। इसलिए मंजूषा में शिवलिंग और उसके दायें—बांयें सर्पाकृति बनायी जाती है। सूर्य और चंद्र जैसे प्रतीकों का प्रयोग प्राय: आकाश को दिखाने के लिए किया जाता है। चांदो सौदागर के भाल पर बंकिम चंद्र आकृति का तिलक है। अत: चंद्र प्रतीक का प्रयोग चांदो के चित्रों में अवश्य किया जाता है। बिहुला के गीतों के अनुसार सूर्य पूरब और पश्चिम दिशा को निर्दिष्ट करता है।
अन्य लोकचित्रों की तरह मंजूषा चित्र शैली में भी एकचश्मी और बांयीं दिशा की ओर रहती है। इस शैली के चित्र में कपाल और कान का अभाव रहता है। पुरुष आकृतियों में मूंछ और शिखा अवश्य बनायी जाती है और स्त्री आकृतियों में जूड़ा।इनकी आंखें बड़ी—बड़ी होती है।गर्दन की लंबाई अंगो के अनुपात में अधिक होती है। स्त्रियों की लंबी सुराहीदार गर्दन की कोमलता और लोच दिखाने के लिए गले पर समानान्तर वलय बनाए जाते हैं। छाती के उभार को दिखाने के लिए दो वृतों का प्रयोग किया जाता है। इनमें स्त्री और पुरुष की भिन्नता को दिखाने की चेष्टा प्राय: नहीं की जाती है।
हां कहीं— कहीं स्त्री कूचों की प्रमुखता दिखाने के लिए वृतों के अंदर बिदु का प्रयोग किया जाता है। तलवे को दिखाने के लिए हरे रंग के स्पर्श से काम चला लिया जाता है और हथेली की अंगुलियां तूलिकाघात के स्पर्श से बना ली जाती है।जिस तरह चांदो सौदागर के चित्र में सर्वत्र चंद्र बनाया जाता है,उसी प्रकार चांदो सौदागर के पुत्र बाला के चित्र में सर्वत्र सर्प से डसते हुए दिखाया जाता है।संभवत: इसका प्रयोग भिन्नता को दर्शाने के लिए किया जाता है। कला की अभिव्यक्ति काफी सशक्त है। सांप के मुंह से लेकर बालों से देह तक काली रेखा खींचकर विष के फैलते प्रभाव को दर्शाया जाता है।वस्त्र अलंकरण आदि में पात्रनुकूलता का ध्यान रखा जाता है।सोनिका प्रतिष्ठित चांदो सौदागर की पत्नी है और मनसा नागों की देवी है, इसलिए उसके लंहगे जरी के बनाए जाते हैं जबकि सामान्य पात्रों के वस्त्रादि साधारण होते हैं।इसके अतिरिक्त स्त्री पात्रों को पति के साथ चित्रित किया जाता है।
मंजूषा चित्रशैली में चरित्र की जीवंतता का हमेशा ख्याल रखा जाता है। नागों की देवी विषहरी को हमेशा सर्पों के साथ, नेतुला धोबिन को पाट और जल के साथ टुंडी राक्षसी को आदमी खाते हुए तथा कुछ को हाथ में लटकाए हुए दिखाया जाता है।मंजूषा चित्रशैली में जिन प्रतीकों का प्रयोग हुआ है उनमें प्रमुख हैं चांद, सूरज,मछली,पाट चंदन,बांस विट्टा,बगीचा,लहरिया आदि।चांद शिवभक्त का प्रतीक, सूरज दिशा का, मछली जल का,पाट धुलाई का, चंदन पवित्रता का, बांस विट्टा वंश का, बगीचा वंश वृद्धि का तथा लहरिया जीवन की प्रवाहमानता का सूचक है। प्रतीक प्रभाव और चरित्रों की जीवंतता के साथ—साथ रंगों के संयोजन में भी बहुत समृद्ध है।चंपा की लोककला मंजूषा चित्रकला। इनमें सहज उपलब्ध चार रंगों के प्रयोग होते हैं। ये रंग हैं गुलाबी,हरा ,पीला और काला। किंतु कहीं कहीं कागज के मौलिक रंग का भी सार्थक और संतुलित उपयोग किया जाता है।
पृष्ठभूमि में सदा गुलाबी रंग ही प्रयोग होता है। जहां तक रंगों केे प्रयोग का सवाल है तो हृदय को आह्लादित करनेवाली हरियाली से हरे रंग के उपयोग की प्रेरणा मिली होगी। पीले रंग का उपयोग तो पारंपरिक मूर्तिकला से ही आया है क्योंकि चेहरे और शरीर के लिए मूर्तिकार पीले रंग का इस्तेमाल करते हैं। दोनों ही रंग नेत्रप्रिय और कांतिमय हैं। गुलाबी रंग तथा आकृतियों के लिए वैषम्य रंगों का प्रयोग तो किया जाता है,आकृतियों को काले रंग से घेर भी दिया जाता है। कथा में वर्णित है कि बाला— बिहुला के लिए विशेष गृह ‘लोहा बांस घर’ की सुरक्षा का भार गरूड़, नेवला, बिलाड़,हाथी,पिलवान को दिया गया था, इसलिए इनके भी चित्र मंजूषा की दीवारों पर बनाये जाते हैं।बाला के प्रिय खिलौने भी विशेष मंजूषा में रखे गए थे इसलिए इनके चित्र भी आधुनिक मंजूषा में अंकित किए जाते हैं। सर्प और खिलौने (पशु पक्षी आदि) के चित्रण में अतिरिक्त रेखाओं के प्रयोग द्वारा त्रिआयामी प्रभाव को दिखाने की सफल चेष्टा की गयी है।खिलौनों की प्रवृति स्थिर चित्र की है जबकि सर्पों के चित्रों में गतिमयता स्पष्टत: परिलक्षित होती है। सर्प के टेक्सचर को रंग,रेखा और बिंदु से उकेरा गया है।
सर्प की लंबाई को दिखाने के लिए ज्यामितिय पचेड़े में न पड़कर कलाकार ने उसके संपूर्ण भावबोध की चिंता की है।कथा के अनुसार जब बिहुला बाला के शव को मंजूषा रूपी जलयान में रखकर निकल पड़ी तो उसने रास्ते के भोजन के लिए रसद रखवायी थी। यही वजह है कि मंजूषा में आग और भुट्टा आदि बनाए जाते हैं। लोक विश्वास के अनुसार माता शीतला रोग व्याधि को नाश करनेवाली एवं समृद्धि तथा स्वास्थ की रक्षा करनेवाली है। इसी मान्यताओं को लेकर मंजूषा में इन्हें भी चित्रित किया जाता है। इनके चित्रण में रंगों और आकृति का संशलिष्ट संयोजन रहता है। त्रिभुज से मंदिर, वृत्त में ऊपर से रेखा खींचकर उसके निचले सिरे पर घुंडी बनाकर घंटा और दांयी बांयीं रेखाएं फैलाकर ध्वज की आकृति बनायी जाती हैं। मंदिर के अंदर देवी शीतला और गदर्भ चित्रित किए जाते हैं। मंजूषा शिल्प आकृतियों और वस्तुओं के चित्रण तक ही सीमित नहीं है। साज सज्जा के दृष्टिकोण से भी काफी समृद्ध है।
चित्रों मे बार्डर और मेहराब देखने को मिलते हैं।आड़ी तिरछी रखी पत्तियों को विभिन्न रंगों से रंगकर बनाया जाता है।बार्डर तो कई तिरछी रेखाओं, उसके बीच हरे पट्टे और लहरिये से बनाया जाता है। बार्डर को अंगिका में ‘मोखा डिजाइन’ भी कहते हैं। हकीकत में मोखा डिजाइन और मेहराब इन चित्रों की सुंदरता ही नहीं बल्कि इस चित्रकला की पहचान है। लहरिया भी इस लोककला की खास चित्रकारी है, जो कलाकार की कल्पनाशीलता और प्रतीकात्मकता का परिचायक है। लहरिया मंजूषा के हर चित्रों में प्रयुक्त होता है। खास बात है कि लहर में गत्यावरोध है जो नदी की विभिन्न धाराओं से होकर विहुला की यात्रा विशेष तथा उसके जीवन में आए गतिरोध को संकेतिक करता है। चित्रकारी के अतिरिक्त मंजूषा कलाकृति का एक और नमूना है ‘वारि मंजूषा’। मूलकथा के अनुसार जब बिहुला निकली तो अपने साथ अपने साथ आनुष्ठानिक उपयोेग के लिए ‘वारि मंजूषा’ में घृत,मधु,तेल,अक्षत आदि डालकर भी ले गयी थी। यह एक प्रकार का कलश है जिस पर फन काढ़े सर्प होते हैं और एक सर्प ढ़क्कन पर भी होता है। कलश और सर्प मिट्टी के बने होते हैं, जिसे रंगों से अलंकृत किया जाता है।यह अत्यंत प्राचीन कला है। शिवशंकर सिंह पारिजात कहते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता में भी यह विकसित थी।
कालखंड में यह कला विलुप्त हो गयी थी। भागलपुर के अंग्रेज कलेक्टर डब्लयू.जी.आर्चर जिन्हें भारतीय संस्कृति से गहरा लगाव था और कला प्रेमी थे,उन्होंने इस कला की खोज की और पाया कि बिहुला— विषहरी के मिथ ने एक ओर कमजोर और पिछड़े वर्गों को मान दिलाया है, वहीं दूसरी ओर चित्रकला को एक नया आयाम भी प्रदान किया है।उन्होंने इस कला का संकलन कर लंदन के ईस्ट इंडिया हाउस में प्रदर्शित कर इसे अंतर्राष्ट्रीय फलक पर स्थापित करने का प्रयास किया। बाद में 1970—71 के दशक में चंपानगर के डीह में खुदाई के दौरान प्राचीन ऐतिहासिक अवशेषों के साथ मानव रहित नाग अलंकरण के जोड़े एवं टेराकोटा मंजूषा कला भित्ति चित्र पाया गया था।यह इसकी प्राचीनता को दर्शाने के लिए काफी है। मंजूषा की सबसे प्रसिद्ध कलाकार चंपानगर के माली परिवार के रामलाल मालाकार की पत्नी चक्रवर्ती देवी थीं, जो मूलत: पश्चिम बंगाल से थीं। चक्रवर्ती देवी के सतत प्रयासों से मंजूषा कला की पहचान बनी। 1978 के आस पास वह मंजूषा के चित्रों को कागज पर बनाने लगी।
कलाकेन्द्र भागलपुर से जुड़े चित्रकार शेखर ने इस कला पर छायाकार मनोज सिन्हा की मदद से जगह—जगह स्लाइड फिल्म बनाकर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया।बाद में पूर्वी सांस्कृतिक क्षेत्र के सांस्कृतिक कला केन्द्र कोलकाता एवं बिहार ललित कला अकादमी की पहल पर आयोजन हुए और इस कला का प्रचार हुआ। इस कला को जीआई टैग मिल गया है। बड़ी संख्या में कलाकार तैयार होते जा रहे हैं। कला केन्द्र के राहुल,संजीव शाश्वती उलूपी झा,मनोज पंडित सहित कई लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं। इस कला को मारीशस में भी प्रदर्शित किया जा चुका है। वर्तमान समय में इस शैली की चित्रकला को व्यापारोन्मुख एवं रोजगारपरक बनाया जा रहा है। नाबार्ड,उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान पटना के साथ-साथ कई संस्थाएं भी इस दिशा में कार्यरत है।
दरअसल लोककला में मानव की सृजनात्मकता,संवेदनशीलता और उसकी इच्छा आकांक्षाओं की स्वत: स्फूर्त अभिव्यक्ति होती है।(विनायक फीचर्स)