नारी विमर्श की मुखर अभिव्यक्ति है सुभद्रा कुमारी चौहान की कथा दृष्टि : विवेक रंजन श्रीवास्तव

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लेखक की कलम से …. सुभद्रा कुमारी चौहान की खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी, हिन्दी के सर्वाधिक पढ़े व गाये गये गीतों में से एक है। यह गीत स्वयं में गीत से अधिक वीर गाथा की एक सच्ची कहानी ही है ! जिसमें कवयित्री ने रानी लक्ष्मीबाई के जीवन के सारे घटना क्रम को एक पद्यात्मक कहानी के रूप में इस सजीवता से प्रस्तुत किया है कि पाठक या श्रोता वीर रस से भाव विभोर हो उठता है। यह रचना उनकी पहचान बन गई है। इस गीत की संगीत बद्ध प्रस्तुतियां किसी भी देश राग के आयोजन को ओजस्विता से भर देती है। जबलपुर की ही साधना उपाध्याय जी के दल ने इस गीत पर बेहद खूबसूरत नृत्य नाटिका तैयार की है जिसकी अनेक प्रस्तुतियां जगह जगह हुई हैं।

किसी भी मनुष्य का व्यक्तित्व एवं उसका बौद्धिक विकास, उसके परिवेश, देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप होता है। सुभद्रा कुमारी चौहान एक साथ ही प्रगतिशील नारी, गृहिणी, मां, कवि, लेखिका, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, जननेत्री व राजनेता थीं। वे जमीन से जुड़ी हुई थीं, अत: उनके अनुभवों का संसार बहुत विशाल था। उन दिनो स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था। भारतीय समाज में जातिगत, वर्गगत, धर्मगत, लिंगगत रूढिय़ां अपने चरम पर थीं। पर्दा प्रथा, बाल विवाह, छुआ छूत, दहेज प्रथा, बहुविवाह, नारी उत्पीडन, सती हो जाने जैसी कुप्रथायें उनके समय समाज में स्त्रियों की प्रगति की बाधा बनी हुईं थी। अपनी कहानियों से सुभद्रा जी ने इन कुप्रथाओ के विरुद्ध भरपूर आवाज उठाई। यही कारण है कि उनके साहित्य में कहीं भी नाटकीयता व बनावटीपन नहीं है वरन् वह हृदय स्पर्शी, वास्तविकता के निकट जन मन की अभिव्यक्ति बन पड़ा है। उन्होने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में हिस्सेदारी निभाई स्वाभाविक है कि उनकी लेखनी ने देश प्रेम के मनोभावो का चित्रण अपनी कविता कहानियो में भी किया। सुभद्रा जी का जन्म 1904 में इलाहाबाद के निकट निहालपुर नामक गांव में रामनाथसिंह के जमींदार परिवार में हुआ था। उनके पिता के अलावा पति लक्ष्मण सिंह , सखी महादेवी वर्मा, ने उनके व्यक्तित्व निर्माण में भरपूर सहयोग किया। उन्होंने जो भी लिखा है वह सब का सब मर्मस्पर्शी, उद्देश्यपूर्ण व शाश्वत बन कर हिन्दी साहित्य की धरोहर के रूप में सुप्रतिष्ठित है। केवल कक्षा 9वीं तक शालेय शिक्षा प्राप्त हुई महिला अपने अनुभवो के आधार पर कितना प्रौढ़ व परिपक्व लिख सकती है इसका सशक्त उदाहरण सुभद्रा जी हैं।

बिखरे मोती उनका पहला कहानी संग्रह है, इसमें भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंझलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम के फूल, किस्मत, मछुये की बेटी, एकादशी, आहुती, थाती, अमराई, अनुरोध, व ग्रामीणा कुल 15 एक दूसरे से बढ़कर कहानियां हैं ! इन कहानियों की भाषा सरल बोलचाल की भाषा है। अधिकांश कहानियां नारी विमर्श पर केंद्रित हैं। उनकी कथा दृष्टि की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि नारी मुक्ति व प्रगति जो शायद उनके समय के लिये नव चेतना थी पर उन्होंने बहुत स्पष्ट तथा खुलकर लेखन किया। उनके स्वयं के देश व साहित्य के लिये समर्पित जीवन का प्रभाव उनकी व्यापक सार्वभौमिक लेखनी पर स्पष्ट दिखता है। उनकी कहानियां नारी विमर्श की अग्रिम पंक्ति की संवाहिका हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान के समूचे साहित्य की सफलता जिस आधारभूत तथ्य पर केंद्रित है, वह मेरे पास उपलब्ध बिखरे मोती कहानी संग्रह की प्रति पर एक मित्र के द्वारा दूसरे को पुस्तक भेंट करते हुये की गई टिप्पणी है। जिसमें स्याही वाली कलम से सुंदर अक्षरो में अंकित है ये कहानियां तुम्हें प्रेरणा देंगी, जन्म दिवस पर सप्रेम भेंट जो इन कहानियों की लोकप्रियता, उपयोगिता व आम पाठक का साहित्य अनुराग प्रदर्शित करती है। आज कितने पाठक स्वयं पुस्तकें खरीद कर पड़ते हैं? भेंट करना तो बाद की बात है। ऐसी रुचिकर हृदय स्पर्शी कितनी कहानियां लिखी जा रहीं है कि वे पाठकों के बीच चर्चा का विषय बन जावें? उनकी कहानियां कृत्रिम , सप्रयास लिखी नहीं लगती। वे तो आसपास से ही उठाई गई विषय वस्तु की तरतीब से प्रस्तुति ही हैं !

उन्मादिनी शीर्षक से उनका दूसरा कथा संग्रह 1934 में छपा। इस में उन्मादिनी, असमंजस, अभियुक्त, सोने की कंठी, नारी हृदय, पवित्र ईर्ष्या, अंगूठी की खोज व वेश्या की लड़की कुल 8 कहानियां हैं।इन सब कहानियों का मुख्य स्वर पारिवारिक व सामाजिक परिदृश्य ही है।

कहानी नारी हृदय में प्रमिला के 3 पत्रों के माध्यम से हमें यह समझने को मिलता है कि तत्कालीन समय में स्त्रियां कितनी विवश थीं ।

एक पत्रांश उधृत है मेरे स्वामी ……परमात्मा ने स्त्री-जाति के हृदय में इतना विश्वास, इतनी कोमलता और इतना प्रेम शायद इसीलिए भर दिया है कि वह पग-पग पर ठुकराई जावे। जिस देवता के चरणों पर हम अपना सर्वस्व चढ़ाकर, केवल उसकी कृपा-दृष्टि की भिखारिन बनती है, वही हमारी तरफ आँखें उठाकर देखने में अपना अपमान समझता है। माना कि मैं समाज की आँखों में आपकी कोई नहीं। किंतु एक बार अपना हृदय तो टटोलिए, और सच बतलाइए क्या मैं आपकी कोई नहीं हूँ। समाज के सामने अग्नि की साक्षी देकर हम विवाह-सूत्र में अवश्य नहीं बँधे, किंतु शिवजी की मूर्ति के सामने भगवान् शंकर को साक्षी बनाकर क्या आपने मुझे नही अपनाया था? यह बात गलत तो नहीं है। मैं जानती हूँ कि आप यदि मुझसे बिलकुल न बोलना चाहें, तब भी मैं आपकी कुछ नहीं कर सकती। यदि किसी से कुछ कहने भी जाऊँ तो सिवा अपमान और तिरस्कार के मुझे क्या मिलेगा ? आपको तो कोई कुछ भी न कहेगा, आप फिर भी समाज में सिर ऊँचा करके बैठ सकेंगे। किंतु मेरे लिए कौन-सा स्थान रहेगा ? अभी रूखा-सूखा टुकड़ा खाकर, जहाँ रात को सो रहती हूँ, फिर वहाँ से भी ठोकर मारकर निकाल दी जाऊँगी, और उसके बाद गली-गली की भिखारिन बन जाने के अतिरिक्त मेरे पास दूसरा क्या साधन बच रहेगा? संभव है आप मुझे दुराचारिणी या पापिन समझते हों; और इसीलिए बहुत सोच-विचार के बाद आपने मुझसे संबंध-त्याग में ही कुशलता समझी हो, और पत्र लिखना बंद कर दिया हो।…अभागिनी प्रमिला।

कहानी का अंत सकारात्मक करते हुये सुभद्रा जी ने लिखा …पत्नी ने कहा … तुम बड़े कठोर हो, उसने मुँह फेरे-फेरे उत्तर दिया।

‘क्यों? मैंने उसका मुँह अपनी तरफ फेरते हुए पूछा, ‘मैं कठोर कैसे हूँ?

अपनी आँखों के आँसू पोंछती हुई वह बोली, यदि तुम निभा नहीं सकते थे, तो उस बेचारी को इस रास्ते पर घसीटा ही क्यों?

मुझे हँसी आ गई, हालाँकि प्रमिला के पत्रों को पढऩे के बाद, मेरे हृदय में भी एक प्रकार का दर्द-सा हो रहा था। मुझे स्त्रियों की असहायता, उनकी विवशता और उनके कष्टों से बड़ी तीव्र मार्मिक पीड़ा हो रही थी।

मैंने किंचित् मुस्कराकर कहा, पगली। यह पत्र मेरे लिए नहीं लिखे गए। कविताओं की स्थिति हिन्दी साहित्य में अजब सी है , हमारा सारा पुरातन साहित्य काव्य में ही है, पर सुभद्रा जी के समय भी पत्रिकायें कविताओ पर पारिश्रमिक नहीं देते थे। उनसे संपादकगण गद्य रचना चाहते थे और उसके लिए पारिश्रमिक भी देते थे। समाज की अनीतियों से उत्पन्न जिस पीड़ा को वे व्यक्त करना चाहती थीं , उसकी अभिव्यक्ति का उचित माध्यम गद्य ही हो सकता था, अत: सुभद्रा जी ने कहानियों की विधा को अपनाया। उनकी कहानियों में देश-प्रेम के साथ-साथ समाज को, अपने व्यक्तित्व को प्रतिष्ठित करने के लिए संघर्षरत नारी की पीड़ा और विद्रोह का स्वर मिलता है। साल भर में ही उन्होंने पहला कहानी संग्रह बिखरे मोती ही लिख डाला। बिखरे मोती छपवाने के लिए वे इलाहाबाद गईं। बिखरे मोती पर सुभद्रा जी को सेकसरिया पुरुस्कार भी मिला। उनकी अधिकांश कहानियाँ सत्य घटनाओ की लोकव्यापी प्रस्तुतियां हैं। देश-प्रेम के साथ-साथ उनमें गरीबों के प्रति सच्ची सहानुभूति मिलती है।

उनकी कहानियों में जहाँ स्त्री सरोकारों की बात दिखती है तो वे सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों की कसौटी पर भी खरी हैं। उनकी कहानियाँ स्वतंत्रता आंदोलन के दौर की नारी का मानसिक पटल प्रस्तुत करती हैं। आज़ादी के पूर्व की भारतीय नारी की दशा और दिशा के आकलन में वे हमारी बड़ी मदद करती हैं।

उनकी नारी केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं चाहती बल्कि सभी प्रकार की गुलामी से मुक्ति चाहती है। वह स्वतंत्रता नहीं, स्वराज्य चाहती है। परतंत्रता नहीं, स्वानुशासन चाहती है। रूढिय़ों-बंधनों से मुक्त होकर वह स्वनियंत्रण में रहना चाहती है। सुभद्रा जी की सभी कहानियों को हम एक तरह से सत्याग्रही कहानियाँ कह सकते हैं। उनकी स्त्रियाँ सत्याग्रही स्त्रियाँ हैं। दलित चेतना और स्त्रीवादी विमर्श को उठाने वाली सुभद्राकुमारी चौहान हिंदी की पहली कहानीकार हैं। सीधेृसाधे चित्र सुभद्रा कुमारी चौहान का तीसरा व अंतिम कथा संग्रह है। इसमें कुल 14 कहानियां हैँ। रूपा , कैलाशी नानी, बिआल्हा, कल्याणी , दो साथी, प्रोफेसर मित्रा, दुराचारी व मंगला 8 कहानियों की कथावस्तु नारी प्रधान पारिवारिक सामाजिक समस्यायें हैं। हींगवाला , राही, तांगे वाला एवं गुलाबसिंह कहानियां राष्ट्रीय विषयों पर आधारित हैं। उनके कथा संग्रहों में कुल 38 कहानियाँ (क्रमश: पंद्रह, नौ और चौदह) प्रकाशित हैं। सुभद्रा जी की समकालीन स्त्री-कथाकारों की संख्या अधिक नहीं थीं। अपनी व्यापक कथा दृष्टि से वे एक लोकप्रिय नारी विमर्श की ध्वज वाहिका कथाकार के रूप में हिन्दी साहित्य जगत में सुप्रतिष्ठित हैं। समय के साथ भले ही सुभद्रा जी की कहानियो के परिवेश का वर्णन पुराना पड़ गया हो किन्तु आज भी देश भक्ति की भावना , और आज की स्त्रियो के मर्यादा पूर्ण स्वातंत्रय की प्रेरणादायी इन कहानियों की प्रासंगिकता यथावत बनी हुई है। (विवेक रंजन श्रीवास्तव: विनायक फीचर्स)

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