योग को जनोपयोगी विज्ञान बनाने के लिए समर्पित रहे स्वामी शिवानंद : कुमार कृष्णन

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लेखक की क़लम से…
ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद सरस्वती एक महान संत और मनीषी थे जिनका लक्ष्य मानव चेतना का उत्थान और आध्यात्म विद्या का प्रचार प्रसार रहा है।पेशे से डॉक्टर होने के बावजूद उन्होंने योग को एक ऐसे जीवनोपयोगी विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया था कि उसे हर व्यक्ति सरलता से अपने जीवन में अपना सकता था। योग और वेदांत की व्यवहारिक शिक्षाओं को सम्मिश्रित कर योग की प्रभावशाली प्रणाली तैयार की जिसके माध्यम से असंख्य साधकों को दिव्य जीवन जीने के लिए प्रेरित किया।

स्वामी जी का व्यक्तित्व संपूर्ण योग का मूर्त स्वरूप है। उनके जीवन में कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग एवं ज्ञानयोग वीणा के विभिन्न स्वरों की तरह लयभूत हो कर ऐसे आत्मसंगीत का निर्माण करते है जिसकी मोहक तान ने हज़ारों साधको के हृदय में दिव्य जीवन का जागरण किया तथा विशुद्ध आनन्द के असीम सागर को आलोड़ित किया।
स्वामी शिवानंद कहा करते थे कि योग का प्रयोजन इस जीवन के चार तारों -शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक को ठीक से ट्यून कर देना है। जब जीवन के चार तारों को ठीक से रखोगो,तब तुम्हारे जीवन में गजब का संगीत पैदा होगा।वह संगीत ब्रह्मांड को नचा सकता है। हमारे प्रबुद्ध ऋषि-मुनियों ने आखिर क्या किया? उन्होंने अपने तारों को ही ठीक किया। आज भी उनकी ध्वनि, उनकी शिक्षा, उनका आदर्श, उनका चरित्र इस ब्रह्मांड में गूंज रहा है।

स्वामी शिवानंद जी चाहते थे कि योग विद्या पूरी दुनिया में फैले। इसके लिए उन्हें स्वामी सत्यानंद के रूप में सुपात्र शिष्य मिल चुका था। लिहाजा उन्होंने स्वामी सत्यानंद को क्रिया योग की शिक्षा देकर 1956 में लक्ष्य दिया था कि बीस वर्षों में योग को द्वार-द्वार पहुंचाओ, विश्व के कोने-कोने में फैलाओ। नतीजतन कड़े तप के बाद बिहार में गंगा के तट पर अवस्थित मुंगेर के जिस स्थान से दानवीर कर्ण सोना दान किया करते थे, वहां से स्वामी सत्यानंद सरस्वती पूरी दुनिया में योग बांटने लगे ।

स्वामी शिवानंद ने आधुनिक समाज की समस्याओं और परेशानियों के निवारण में योग की अहम् भूमिका को पहचाना और इसके लिए उन्होंने योग को शुष्क दर्शन के दायरे से निकालकर एक जीवंत विद्या का रूप दिया। जो विद्या अब तक गुप्त और रहस्यमयी समझी जाती थी,उसे एक सरल-सुबोध रूप देकर मुक्त हस्त वितरित की। योग को विज्ञान की कसौटी पर खरा उतारने के मकसद से योग पर व्यापक शोध और अनुसंधानों को प्रोत्साहित किया।
वेदान्त के महान आचार्य और योग के महागुरू स्वामी शिवानंद सरस्वती जी का जन्म 8 सितम्बर 1887 को तमिलनाडु में हुआ था। वे वरिष्ठ योग चिकित्सक रहे। उस दौर में एफ.आर.सी.एस. के डिग्रीधारी थे, जब बहुत कम लोगों के पास यह डिग्री होती थी। मलेशिया में एक चिकित्सक के रूप में उन्होंने सेवा की।

जब स्वामी शिवानंद सरस्वती मलाया में रहकर चिकित्सा कार्य में सक्रिय थे तो उन दिनों अंग्रेजों के रबर के बगीचों में भारतीय श्रमिक भी काम करते थे। स्वामी जी रबर के एक बगीचे के पास स्थित अपने क्लीनिक में बैठकर रोगियों की चिकित्सा सेवा के लिए तत्पर रहते थे। एक बार एक गरीब श्रमिक की पत्नी गंभीर रूप से बीमार हो गई। श्रमिक रोता हुआ उनके पास पहुंचा और बोला, ‘‘महाराज, मेरे पास एक रुपया तक नहीं है। अपनी पत्नी का इलाज कैसे कराऊंगा।’’
स्वामी जी ने कहा, ‘‘चिंता न करो, उसे लाकर मुझे दिखाओ।’’
उन्होंने महिला के शरीर की जांच की तथा दवा की व्यवस्था कर दी। जब वह चलने लगा तब वे बोले, ‘‘इसे पौष्टिक भोजन देना बहुत जरूरी है, लो ये रुपए लेते जाओ। इसे दूध तथा फल ज़रूर देना, तभी यह स्वस्थ हो पाएगी।’’
गरीब श्रमिक स्वामी जी में भगवान के दर्शन कर उनके आगे नतमस्तक हो उठा।

चिकित्सा कार्य के दौरान एक साधु ने उन्हें एक किताब दी, जिसका नाम ‘ब्रह्म विचार’ था। इस पुस्तक को पढ़कर मन में विचित्र सुखद परिवर्तन हुआ और वे 1924 में अपने कर्मक्षेत्र का त्यागकर भारत आ गए। चेन्नई में जहाज से उतरे। अपने मित्र को बुलाकर अपना सामान सौंपा और कहा कि यह सामान घर में दे देना। मैं घर नहीं जा रहा हूं, बल्कि गुरू की खोज में,परमात्मा की खोज में हिमालय जा रहा हूं। वहां से ट्रेन में चढ़े और निकल पड़े उत्तर भारत की ओर। इलाहाबाद,बनारस और पंडरपुर सहित अनेक तीर्थस्थलों का भ्रमण कर ऋषिकेश पहुंचे और कठिन आध्यात्मिक साधना की। साधना के दौरान ही स्वामी विश्वानंद सरस्वती से मुलाकात हुई,उनसे सन्यास की दीक्षा ली,जिससे उनके भीतर आध्यात्म की ज्योति प्रज्ज्वलित हो गयी। गुरू की ऊर्जा उनमें अवतरित हो गयी।

सन् 1932 में उन्होने शिवानन्दाश्रम और 1936 में दिव्य जीवन संघ की स्थापना की। अध्यात्म, दर्शन और योग पर उन्होने लगभग 300 पुस्तकों की रचना की। यह वह दौर था जब एक ओर आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी तो दूसरी ओर स्वामी शिवानंद जैसे सन्यासी आजाद भारत के भविष्य की रूप रेखा और योग संस्कृति का खाका खींच रहे थे। वे 1938 में मुंगेर आए और पूरे दिन यहां उन्होंने नगर कीर्तन किया। स्वामी शिवानंद का जोर उन प्रचलित बाधाओं को तोड़ने का था जो जरूरतमंदों को योग शिक्षा से विलग कर देती है। चाहे इसका स्वरूप शारीरिक स्वास्थ्य हो या मानसिक शांति या आध्यात्मिक अभिप्सा।

स्वामी शिवानंद के योग सिद्धांत को उनके द्वारा प्रतिपादित आष्टांग योग—सेवा, प्रेम, दान, शुद्धता, सत्कर्म, सदाचार, ध्यान और आत्मानुभूति द्वारा समझा जा सकता है। यही सिद्धांत बिहार योग पद्धति को मार्गदर्शन देता रहा है। स्वामी शिवानंद के योग संदेश को स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने अपने शिष्यों तथा प्रमाणिक लेखन के द्वारा पूरे विश्व में फैलाया। ऋषिकेश में बारह वर्षो का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद नौ वर्षों तक परिव्राजक के रूप में पूरे भारत की यात्रा की तथा समाज के समस्त वर्गो में व्याप्त मानवीय पीड़ा का गहन अवलोकन किया। वे इस नतीजे पर पहुंचे कि योग आज के आधुनिक मनुष्य की समस्याओं का समाधान कर सकता है और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। इस मकसद से 1963 में बिहार योग विद्यालय की स्थापना की गयी।

स्वामी शिवानंद सरस्वती और स्वामी सत्यानंद सरस्वती के कार्य को जारी रखे हुए हैं स्वामी निरंजनानंद सरस्वती। स्वामी शिवानंद जी कहते हैं कि सबसे बड़ा शत्रु द्वैत भाव है। यही माया का आधार है। फिर अहंकार है, अस्मिता है,मरने का भय है, घमंड, दर्प अभिमान, राग—द्वेष, कामुकता,भावुकता,निष्क्रियता और दिमाग का मोटापन भी है।शरीर मोटा होता है तो चलने फिरने में दिक्कत होती है। मन मोटा हो जाता है तो वह पत्थर की तरह जड़वत हो जाता है,मन की ग्रहणशीलता समाप्त हो जाती है। भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम मानसिक शांति की खोज में स्वामी शिवानंद के आश्रम पहुंचे। स्वामीजी का भव्य व्यक्तित्व देखकर कलाम बहुत प्रभावित हुए। जब उन्होंने स्वामीजी को अपना परिचय दिया, तो वे बड़े स्नेह से उनसे मिले।

कलाम ने उस भेंट के विषय में एक जगह लिखा है- मेरे मुस्लिम नाम की उनमें जरा भी प्रतिक्रिया नहीं हुई।मैंने उन्हें वायुसेना में अपने नहीं चुने जाने की असफलता के विषय में बताया तो वे बोले- इच्छा, जो तुम्हारे हृदय और अंतरात्मा से उत्पन्न होती है, जो शुद्ध मन से की गई हो, एक विस्मित कर देने वाली विद्युत चुंबकीय ऊर्जा होती है। यही ऊर्जा हर रात को आकाश में चली जाती है और हर सुबह ब्रह्मांडीय चेतना लिए वापस शरीर में प्रवेश करती है। अपनी इस दिव्य ऊर्जा पर विश्वास रखो और अपनी नियति को स्वीकार कर इस असफलता को भूल जाओ। नियति को तुम्हारा पायलट बनना मंजूर नहीं था।अत: असमंजस और दुख से निकलकर अपने लिए सही उद्देश्य की तलाश करो।

स्वामी शिवानंद के शब्दों ने जादू-सा असर दिखाया और कलाम ने दिल्ली आकर डीटीडीएंडपी जाकर अपने साक्षात्कार का नतीजा पता किया। नतीजा उनके पक्ष में था और वे वरिष्ठ वैज्ञानिक सहायक के पद पर नियुक्त हुए। आगे चलकर वे देश के सर्वोच्च पद पर आसीन हुए।कभी इच्छा,संकल्प और प्रयत्न के बावजूद भाग्य साथ नहीं देता है, किंतु इससे निराश होने के स्थान पर स्थिर चित्त से विचार कर कार्य-दिशा कुछ परिवर्तित करते हुए दोगुने उत्साह से प्रयत्नशील होना चाहिए। अंतत: सफलता अवश्य मिलती है।डॉ. कलाम ने अपनी किताब ‘अग्नि की उड़ान’ और ‘माय जर्नी: ट्रांसफॉर्मिग ड्रीम्स इन टू एक्शन’ में इस वाकये का जिक्र किया है।

स्वामी शिवानंद का कहना था- ‘आध्यात्म का लक्ष्य संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास है। एकांगी विकास उचित नहीं है।इसलिए हमें समन्वित योग का अभ्यास करना चाहिए। हमारी अभिव्यक्ति बुद्धि ,भावना और कर्म -इन तीन स्तरों पर होती है हमें अपनी तीन क्षमताओं के विकास का भरपूर प्रयास करना चाहिए, तभी हमारा व्यक्तित्व पूरी तरह से निखर सकेगा। जो योग हमारी बुद्धि, भावना और कर्म को विकसित करने में सहायक होता है, वही संपूर्ण योग है।’समत्व ही योग है। शांति ही योग है।कर्मों में कुशलता ही योग है।जिस किसी विधि से उत्कृष्ट, उत्तम जीवन की प्राप्ति हो वही योग है। योग एक समत्व विज्ञान है, जिसके द्वारा शरीर, मन और आत्मा तीनों का सर्वांगीण विकास होता है। यद्यपि आध्यात्म का आधार वेदान्त है, लेकिन साथ ही यह आवश्यक है कि मन और हृदय शुद्धि के लिए कर्म योग,मानसिक विक्षेपों के नाश के लिए राजयोग तथा अज्ञान का आवरण हटाने और सच्चिदानंद स्वरूप में स्थित होने के लिए ज्ञानयोग -इन सभी का समन्वित अभ्यास हो।

स्वामी शिवानंद की वाणी और लेखनी से दिव्य और प्रेरणास्पद विचारों की जो अविरल धारा प्रवाहित हुई, उसने संसार के लोगों को बेहद प्रवाहित किया। वाणी और लेखनी में अद्भुत आध्यात्मिक शक्ति थी, उनकी सरल तथा सटीक शिक्षाएं श्रोताओं के हृदय को छू लेती थी। उन्होंने वही सिखाया जिसे स्वयं आत्मसात किया था। लोगों की सेवा करना,उन पर सर्वस्व लुटाना यह स्वामी शिवानंद का जन्मजात स्वभाव था। उनके लिए मानव सेवा ही माधव सेवा थी। उन्होंने जीवन में जो कुछ किया, एक ही लक्ष्य सामने रखकर किया-बहुजन सुखाय बहुजन हिताय।यही उनका मूलमंत्र था। स्वामी शिवानंद जी का सेवा, प्रेम, दान, शुद्धि, ध्यान, साक्षात्कार भला बनने और भला करने का आष्टांगीय योगमार्ग आज दुनिया भर के साधकों के लिए आध्यात्मिक राजपथ बन गया।(विनायक फीचर्स)

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